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पैदल, नंगे पाँव जी
चली गिलहरी गाँव जी।
रहती थी वह बड़े शहर में
लेकिन फिर भी बहुत दुखी थी।
भीड़-भड़क्के, शोर-शराबे,
से वह काफी ऊब चुकी थी।
चुभती थी काँटों के जैसी
उसे वहाँ की छाँव जी।
खेला करती जो उसके संग
ऐसी न थी कोई सहेली।
वहाँ किसी को फुरसत न थी
रहती थी वह बड़ी अकेली
ना चिड़ियों की चह-चह थी, ना
थी कौओं की काँव जी।
गाँव पहुँचते ही वह फौरन,
हरे-भरे खेतों में घूमी।
ठंडी-ताजी हवा बही तो,
रोक सकी न खुद को, झूमी।
देख नदी का पानी, उसके
मन में तैरी नाव जी।
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